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स्कूल नहीं जाते हम




"ए छोटू ! बेटा दो चाय !" सुनील ने चाय की दुकान के सामने गाडी रोकते हुए कहा। "आज छुट्टी है चिन्तू , चलो कहीं घूम आएँ वरना घर बैठे-बैठे क्रिसमस की छुट्टी पता ही नहीं चलेगी , किसी मामूली सन्डे सी निकल जायेगी।"
"चलेंगे घूमने। मगर किसी छोटू को आज के दिन याद कर लोगे तो क्रिसमस मामूली नहीं गुज़रेगा।" चिन्तामणि ने जवाब दिया।
"अरे क्रिसमस से हमें क्या ? ईसाइयों का त्यौहार है , हम न चर्च जाते हैं और न बाइबिल पढ़ते हैं , बस दफ्तर में अगर कोई केक खिला देता है तो मालूम पड़ जाता है कि साथ एक ईसाई कर्मचारी भी है। और छोटुओं को याद करने के दूसरे बहाने भी तो हैं। दीवाली , होली , नवरात्र , वगैरह।"
"किसी अभागे को याद करने के लिए कोई त्यौहार यकीनन नहीं होता , मगर क्रिसमस पर चार्ल्स डिकेंस याद आते हैं। वे छोटुओं के साहित्यकार हैं। " मैंने कहा।
"चार्ल्स डिकेंस ? अच्छा वे ? स्कूल की इंग्लिश की किताब में जिनका चैप्टर था !" सुनील बोला।
"हाँ , वही। ज़िन्दगी का लम्बा वक़्त उन्होंने छोटू बनकर काटा था। उन्होंने छोटुओं पर खूब कलम चलायी है , खूब लिखा है। डेविड कॉपरफील्ड , ऑलिवर ट्विस्ट और अ क्रिसमस कैरल। डेढ़ सौ साल पहले का औद्योगिक इंग्लैण्ड , जब हम उनके ग़ुलाम थे। मगर ग़ुलाम तो खुद उनकी जनता भी थी जो फैक्ट्रियों में काम करती थी , घोर दरिद्रता में। छोटे-छोटे बच्चे रात-दिन मजदूरी करते थे। तब स्कूलों का चलन केवल अमीरों के बच्चों के लिए था।"
"हमारे यहाँ इस तरह का साहित्य नहीं लिखा गया ?"
"हमारे यहाँ , मजदूरों पर तो लिखा गया मगर बच्चों पर बड़ा कम लिखा गया और बाल-मजदूरों पर उससे भी कम। हमारा क्लासिकल बाल-साहित्य तुलसी-सूर का सरस साहित्य है जहाँ रामचन्द्र अयोध्या के भव्य महल में ठुमक कर चलते हैं , जहाँ यशोदा हरि को पालने झुलाती हैं और वे चन्द्र-खिलौने की ज़िद करते हैं। बाल-मजदूर हमारे इतिहास में रहे भी होंगे तो उनका कहीं ज़िक्र नहीं मिलता क्योंकि हमारा क्लासिकल साहित्य देवताओं और राजाओं पर है और उनके बच्चे मजदूरी नहीं करते। और जब हमारे यहाँ प्रेमचन्द पैदा हुए तो लिखने के लिए एडल्ट मजदूरों का दुःख-दर्द ही इतना था कि बच्चों का नम्बर ही नहीं आया। ईदगाह का हामिद गरीब है मगर बालमजदूर नहीं है , उसकी दादी जैसे भी उसे पालती हो , पर पाल तो लेती ही है। इस लिए छोटू-साहित्य हमारे यहाँ बड़ा कम है।"
"पर एक बात बताओ। आदमी चाहे जितना गरीब हो , पहली रोटी का पहला निवाला अपनी औलाद को खिलाता है फिर बच्चों पर इतना कम क्यों लिखा गया हमारे यहाँ ?" सुनील ने पूछा।
"क्योंकि साहित्य रोटी नहीं है। रोटी का पहला निवाला बच्चे को खिलाने वाले भी , लिटरेचर का आखिरी सेंटेंस उनपर लिखते हैं।आदमी औलाद को खुद से पहले तो खिलायेगा लेकिन दुःख को सबके सामने कहने की बात आयेगी तो अपना पहले बतायेगा। क्योंकि वह मानकर चलता है कि उसके दुःख में उसकी नन्हीं औलाद का दुःख सम्मिलित है।


 हमने बच्चों को कभी गम्भीरता से लिया ही नहीं , जैसे डिकेंस लेते थे। उनकी अलग आइडेंटिटी मानी ही नहीं , उन्हें माँ-बाप पर आश्रित माना , बस।"
तक तक छोटू चाय ले आया था।
"स्कूल की छुट्टी है , आज ?" सुनील ने उससे पूछा। जब सबसे कठिन जवाब तलाशने होते हैं , सबसे सरल सवाल तभी पूछे जाते हैं।
लड़का हँसा।
"क्यों ? बोलो ?"
"स्कूल नहीं जाते हम।" कहकर वापस हो लिया। और भी लोगों की चाय की तलब मिटानी थी उसे।
"यह डिकेंस की कथा-वस्तु है सुनील। यह उनका सब्जेक्ट है। ईसामसीह को चाहे न मानो , मगर आज के दिन चार्ल्स डिकेंस और उनकी 'अ क्रिसमस कैरल' को याद करो। बच्चों को इग्नोर मत करो। ईसा भी यहाँ होते तो यही चाहते।"


--डॉ. स्कन्द शुक्ल 

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