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अपने पदचिह्नों को देखने की आदत डाल



"गुरूजी ! प्रेमचन्द में और आम आदमी में क्या अन्तर होता है ?" लड़का पूछ रहा था।
"क्यों रे चंचल ! कविता लिखने गया था और प्रेमचन्द के चक्कर में पड़ गया। खैर , तेरी उम्र ही ऐसी है , तू टिकेगा नहीं।" गुरूजी ने कहा।
लड़का टकटकी बाँधे , जवाब का इंतज़ार करने लगा।
"तो सुन बालक ! जो जूते पहनकर चले और रुककर अपने पैरों के निशानों को पलट कर देखे कि कोई होरी-घीसू-धनिया-माधव दबा तो नहीं पड़ा है , वह प्रेमचन्द , और जो न देखे बस चलता चला जाए , वह आम आदमी।" गुरूजी संक्षेप-मोड में बोले।
"गुरूजी , जूतों के नीचे देखने की आदत ही नहीं पड़ती।" लडक ने मासूमियत से जवाब दिया।
"इस आदत को बनाने में ज़िन्दगी निकल जाती है , बेटा। और कभी-कभी तब भी नहीं बनती।" गुरूजी ने कहा।
"पर गुरुवर , एक शंका पैदा होती है। प्रेमचन्द के पाँवों तले भी लोग कुचले जाते हैं ?" लड़के ने पूछा।
"और फिर ! मुन्ना , पैदा होने के दिन से लेकर मरने के दिन तक , यह कुचलना लगातार चलता है। इसे कोई रोक नहीं सकता। इसे कोई रोक पायेगा भी नहीं। प्रेमचन्द के बस में भी होरी-घीसू के कुचलने को रोक पाना नहीं है। पर वे हैं कि रुककर देखते हैं और हम उतना भी नहीं करते। " गुरूजी अचानक गम्भीर हो चले थे।
"वे तो फटे जूते पहनते थे , गुरुदेव। हरिशंकर परसाईजी ने उनपर एक लेख भी लिखा है।" लड़का जाने को उद्यत होता है।
"वे जूतों से सवारी का काम लेते थे ताकि कुचले जाने वाले , जूतों के उन छेदों से चाहें तो ऊपर चढ़ सकें। वे उनके पादुका-यान थे। यह बारीक बात है जो परसाईजी तुम्हारे जैसे बच्चों को नहीं बताएँगे।चल , अब जा यहाँ से। " गुरूजी ने कहा।
"आज्ञा , गुरुदेव।"
"जा बेटा। नंगे पैर चलने की कोशिश मत करना क्योंकि कुचले जानेवालों को तू तब भी बचा नहीं पायेगा। समझ रहा है न ? बस , हो सके तो अपने पदचिह्नों को देखने की आदत डाल। " गुरूजी ने परिशिष्ट को भी प्रकट करते हुए कहा।
"जी गुरुदेव।"


-- डॉ. स्कन्द शुक्ल 

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