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होल-बॉडी-एमआरआई

                               

                 होल-बॉडी-एमआरआई
तो क्यों न होल-बॉडी-एमआरआई करा लिया जाए !
वे रोगी हैं और सबसे बड़ा दुर्भाग्य अब तक यह है कि उनका रोग अज्ञात है। अज्ञात रोग बहुधा ठीक होने में समस्या उत्पन्न करते हैं। ऐसे में उनके दूर के फूफा जी जो लहीम-शहीम हैं , एक त्वरित प्रस्ताव देते हैं : "क्यों न होल-बॉडी-एमआरआई करा लिया जाए !"
आम आदमी के मस्तिष्क में एमआरआई सबसे महँगा धन-संज्ञान जगाता है। वह एक सुरंग है जो कई हज़ार रुपये पी लेती है। लेकिन वह सभी डायग्नोस्टिक विधाओं में वरिष्ठा है। वह जो बता सकती है , कोई अन्य जाँच नहीं बता सकती। वह जिस गोपन का उद्घाटन कर देती है , किसी अन्य मशीन के वश का भला कहाँ !
निश्चय ही एमआरआई महत्त्वपूर्ण है , लेकिन क्या एक्सरे की जाँच अब बेकार हो चुकी है ? या फिर अल्ट्रासाउण्ड का कमतर महत्त्व है ? या फिर सीटी के जाने की सीटी बज चुकी है ? यहीं वह सबसे बड़ी चूक होती है , जिसके लिए रोगी के धन का व्यय उत्तरदायी है।
चिकित्सा के क्षेत्र में एक्स-रे , अल्ट्रासाउण्ड , सीटी , एमआरआई या अन्य कोई भी जाँच अपना-अपना महत्त्व रखती है। हर जाँच की अपनी पहुँच है , उसे कराने के अपने इंगित मानदण्ड हैं। केवल इसलिए कि एमआरआई एक्सरे की तुलना में अधिक रुपयों में होती है , वह हर रोग का चटपट हल नहीं बता सकती।
बीमारी की पकड़ के महत्त्वपूर्ण पहलुओं में से एक प्रीटेस्ट प्रोबेबिलिटी या जाँच-पूर्व की सम्भावनाएँ हैं। इसे मेडिकल कॉलेजों में डिफरेंशियल डायग्नोसिस के तले सिखाया जाता है। मेडिकल साइंस में लड़कों को अन्तर्यामी होने की ट्रेनिंग नहीं दी जाती ; उन्हें उपलब्ध लक्षणों के आधार पर जाँचें कराने और तत्पश्चात् कुछ रोगों तक पहुँचना सिखाया जाता है। लक्षण अगर आगे बदले तो डायग्नोसिस बदल सकती है। नयी जाँचें करायी जा सकती हैं।
अच्छा चिकित्सक पूर्वाग्रह से ग्रस्त नहीं रह सकता। अच्छा रोगी चिकित्सक को विज्ञान-जीवी मानता है , भगवान्-वगवान नहीं। विज्ञान सहायक है रोग पकड़ने में , लेकिन उसकी भी आज एक सीमा है। हाँ , अलबत्ता इस सीमा का उत्तरोत्तर विस्तार होता जा रहा है।
होल-बॉडी-एमआरआई में एक झुँझलाहट है प्रकृति के सामने। इस तरह की जाँच का प्रस्ताव ढेर सारे नोट फेंककर बीमारी को बाँधने की कवायद है।
रोग अर्थ के अधीन नहीं है , लेकिन वह अर्थ से तभी पकड़ा और निवारा जाएगा , जब अर्थ बुद्धि और नीति के इशारों पर चलेगा।
अन्यथा पैसे फेंकने पर भी कुछ हाथ न आएगा।

-- डॉ. स्कन्द शुक्ल 

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