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कल... आज... कल...



कल... आज... कल... 

"शाबजी ! आपको पता है 'शीताजी' हमरे नेपाल का था।" बहादुर मेज पर 'सावल' लगाते हुए कहता है।
कार्तिक ढाबा हमारे दफ़्तर के पास ही था जहाँ मैं और सुनील अक्सर दोपहर में खाना खाने आते थे। कभी-कभी कैंटीन के खाने से मन उकता जो जाता है। शर्मा अंकल का वह ढाबा , नेपाली कर्मचारियों से भरा हुआ था। बहादुर उन्हीं में से एक था। बातूनी होने के कारण उसे हमारी बातों में रस मिलता था और वार्त्तालाप में हमें उसकी उपस्थिति , 'फॉर अ चेंज' , खलती नहीं थी।
"पता है चिन्तू , अब कन्फर्म हो गया है कि आर्य यहीं के थे , बाहर से नहीं आये थे।" सुनील अखबार पलटते हुए बोला। हाल में ही एक अँगरेज़ी पत्र में तथाकथित 'आर्य-आक्रमण' पर एक विशद लेख छपा था , वह उसी के सन्दर्भ में बात कर रहा था।
" 'यहीं' का क्या मतलब है ? और 'बाहर' का ? " मैंने पूछा।
सुनील को सवाल कैज़ुअल लगा और उसने आधा जवाब देते हुए कहा , - "यहीं मतलब ये देश। भारत। इंडिया।"
"यह देश सदा से इतना ही कब रहा है सुनील ? और सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि यह देश ही कब रहा है ? राजनैतिक एकता तो यहाँ दो सौ साल पुरानी है , बस। उसके पहले तक तो केवल सांस्कृतिक समरसता मौजूद थी।"
"अरे पर यह तो सिद्ध हो गया न , कि हमारी संस्कृति यहीं की है , बाहरी नहीं।"
"तुमने अब तक 'यहीं' की परिभाषा नहीं बतायी , सुनील। चलो तुम्हें मैं बताता हूँ। तुम्हारा 'यहीं' है , यह गंगा-यमुना का मैदान। ये उत्तर प्रदेश-बिहार। तुम्हें लगता है तुम्हारी संस्कृति यहीं यूपी और बिहार की पैदाइश है। जबकि ऐसा है नहीं।"
सुनील मुझे सुन रहा था।
"तुम्हारे हिसाब से श्रीराम यहाँ पैदा हुए , श्रीकृष्ण भी यहीं जन्मे , मगर जिस धर्म को तुम हिन्दू धर्म कहते हो वह तो इन दोनों से पुराना है , मानते हो ?"
"हाँ।"
"और वेदों का अस्तित्व इनसे पहले का है?"
"हाँ।"
"और उन चारों वेदों में ऋग्वेद प्राचीनतम है।"
"हाँ।"
"तो उसमें मेरे भाई , गंगाजी से ऊपर सिन्धु मैया का नाम आता है। वही जो अब पाकिस्तानियों के पास चली गयीं सैंतालीस के बँटवारे में। वैदिक सभ्यता में सिन्धु का दोआब , गंगा के दोआब से ऊपर स्थान पाता है। इन्द्र-सोम-अग्नि , विष्णु-शिव-ब्रह्मा से ऊपर स्थान पाते हैं। मगर अब इनका तुम नाम भी नहीं लेते। इनका कोई मन्दिर भी नहीं है। जिस संस्कृति को तुम अपनी कहते हो वह पाकिस्तान-अफ़ग़ानिस्तान , और उसके भी पश्चिम तक फैली हुई थी। तो जब 'यहाँ' , 'वहाँ' तक फैला हुआ था सांस्कृतिक रूप से तो तुम्हारी बात ही खारिज हो जाती है। गंगा-यमुना के सनातन अक्ष से बाहर निकल कर सोचो।"
"फिर भी यह उन लोगों को करारा जवाब है जो हमें बाहरी बताते हैं ? ये मुसलमान , ये अँगरेज़।" सुनील ने अखबार बन्द करते हुए कहा।
"धर्म पहले संस्कृति गढ़ता है और फिर राजनीति। जब धर्म की राजनैतिक कर्मभूमि उसके मूलस्थान से खिसक जाती है तो धीरे-धीरे सांस्कृतिक भी खिसकने लगती है। ईसाई धर्म की सारी लीलाएँ एशियाई थीं मगर अब उसकी राजनैतिक कर्मभूमि यूरोप और अमेरिका हैं , सो सांस्कृतिक कर्मभूमि भी सैकड़ों सालों से वैटिकन हो गयी है। ईसा के बाद के ज़्यादातर सन्त यूरोपीय हुए , मध्य एशियाई नहीं। बौद्ध धर्म भारत से लुप्त हुआ , उसकी राजनैतिक कर्मभूमि साउथईस्ट एशिया , कोरिया और जापान बन गयीं। फिर बौद्ध सांस्कृतिक केन्द्र भी खिसकने लगा जब तक कि नवीन बौद्धों ने उसका पुनरुद्धार नहीं किया। और फिर यह साबित करने से कि हम हमेशा से यहीं के हैं और तुम बाहरी हो , क्या हासिल होगा ? ईगो-बूस्ट के अलावा ?" मैंने सवाल किया।
" इसी आर्य-आक्रमण का सहारा लेकर अँगरेज़ और मुसलमान हमें दलितों से लड़वाते हैं , हमारी देशभक्ति पर सवाल उठाते हैं।" सुनील बोला।
"समझदारी इसमें है कि लड़वाने वाले की बात को तवज्जो न देकर देश के लिए जो आप कर सकें , करें। बहादुर यहाँ-इस ढाबे में बीस साल से खाना खिला रहा है मगर अब भी तुम इसे नेपाली कहते हो , भारतीय नहीं। बीस साल हिन्दुस्तानियों को खाने खिलाने पर इसे इंडियन मानोगे या पासपोर्ट देखोगे ? और हाँ , बहादुर ! सीता मैया नेपाली थीं। बिलकुल।" मैंने बहादुर की तरफ रुख करके कहा और उसकी बाँछें ऐसी खिलीं जैसी कभी खाने के बाद 'टिप' पाकर भी नहीं खिलीं थीं। संस्कृति का नशा ही कुछ ऐसा है।
"और सुनील , भगवान रामचन्द्र की माता कैकेयी अफ़ग़ानिस्तान की थीं। कैकेय देश वहीं है , फॉर योर इंफॉर्मेशन। अब तुम कैकेयी से से महमूद ग़ज़नी तक एक कोई तार जोड़कर यह मत कहने लगना कि भारत की सारी समस्याओं की जड़ अफ़ग़ानिस्तान है। क्योंकि जो आज अफ़ग़ानिस्तान है , पहले कुछ और था।"

-- डॉ. स्कन्द शुक्ल 


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