मरीज... ऑब्जेक्ट... सब्जेक्ट...
सुशान्त सस्पेंड कर दिया गया था , डिपार्टमेंट से। न ओपीडी में दिखोगे तीन हफ़्तों तक , न वॉर्ड में और न ओटी में।जाओ। बैठो हॉस्टल में और घूमो चाय के अड्डों पर।
"जिन को बोतल में बन्द कर दिया गया है।" मैंने उससे कहा था।
"क्या बॉस , आप भी मज़े लेंगे ?" उसके स्वर में किलसन थी।
"डॉक्टर जिन नहीं हैं ? पब्लिक तो उनको वही समझती है ? भगवान तो अब आउटडेटेड संज्ञा हो गयी है , बेटा।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा।
"पब्लिक साली क्या समझे कि हमपर क्या बीतती है ? केबल पर 'संजीवनी' देखने वाले लोग हैं बॉस ये लोग , डॉक्टरों को मॉडल समझते हैं। इन्हें हमारा बिना दस्तानों के पट्टी करना नहीं दिखता ; कॉलेज गेट पर हमारा चाय पीना दिखता है।"
"तो समझाओ उन्हें ? मेरी समझ से डॉक्टरों की तरफ से भी कमी है यहाँ। हमें अपने प्रोफेशन की ग्लैमरस छवि पर खुश नहीं होना चाहिए , यह तो मीठा ज़हर है। इससे समाज हमारे प्रति ईर्ष्यालु होता है। जेलसी पैदा होती लोगों में।
कभी मीडिया का कैमरा हॉस्टलों की तरफ मुड़वाओ जहाँ लड़के-लड़कियाँ 'लव एंड बेली' खोलकर रतजगे करते हैं। वॉर्डों के चक्कर उन घंटों में लगवाओ जब मन्त्रीजी का दौरा न हो। कुछ ऐसा माहौल पैदा करो कि प्रोफेसरों के इंटरव्यू छपने से पहले , पसीना बहाने वाले लड़कों के इंटरव्यू छपें। उसमें भी हाउस को तरजीह मिले। मेडिकल कॉलेज में भी एक वर्ण-व्यवस्था चला करती है , प्रोफ़ेसरों की बैगथामू परम्परा। यह हाइरैरकी ख़त्म होनी चाहिए। यह सब मिलकर हमारे खिलाफ माहौल पैदा करता है , समाज में। फ़ौज में क्या केवल जवान गोली चलाते हैं और अफसर केवल ऑर्डर देते हैं ; नहीं न ! तो मेडिकल कॉलेज में क्यों ? "
"बॉस , हमारे पास पट्टियों और फाइलों से फ़ुर्सत है ? आपको तो पता है कि ... " सुशान्त बोलने लगा।
"यार , ज़िम्मेदारी सबकी है। मरीज़ सबके हैं , केवल प्रोफ़ेसरों के नहीं। मरीज़ के तीमारदार को यह जनवाना पडेगा कि सबसे महत्त्वपूर्ण डॉक्टर तुम हो और यह काम प्रोफ़ेसर साहब को करना पड़ेगा। 'बड़े डॉक्टर साहब' मरीज़ को तभी ठीक कर पाएँगे जब 'छोटे डॉक्टर साहब' वहाँ दिन-रात पसीना बहाएँगे। मरीज़ का परिवार यह तो जाने कि जो उसकी पट्टी तुम करने जा रहे हो , वह दोसौ एकवीं है , पहली नहीं। समस्या तो यह है कि तुम्हारा बोझा उसे दिखायी ही नहीं देता।"
" वे तो कह देंगे कि यह तो आपकी ड्यूटी है। आपको तो यह काम करना ही पड़ेगा।" सुशान्त ने कहा।
" ड्यूटी शब्द आजतक इसलिए अपना असर नहीं छोड़ पाया क्योंकि वह बोझ की तरह बोला जाता है। ड्यूटी करने के लिए इस तरह मत कहिए कि आप उसे अपना नौकर समझ रहे हों। 'नौकरी' में इससे अभिरुचि मर जाती है।यह चीज़ उनको धीरे-धीरे समझ में आ जायेगी। "
"मीडिया को यह सब कब दिखेगा बॉस ? प्रिंट में , इलेक्ट्रॉनिक में , फर्स्ट इयर रेजिडेंट क्यों नहीं दिखाया जाता , जब कि पूरा अस्पताल वही चलाता है।" सुशान्त ने ठण्डी साँस छोड़ी।
"दलितों और औरतों ने पूरी दुनिया चलायी है पर अभी से पहले तक उनके बारे में कोई बात करता था ? 'हाउस' मेडिकल समाज का दलित है। वह परदे के पीछे काम करता है। वह काम करे और सीखे , यह तो अच्छी बात है मगर मेडिकल प्रोफ़ेशन की छवि तभी सुधरेगी जब ज़्यादा बात उसके बारे में की जायेगी , हेड ऑफ़ डिपार्टमेंट के बारे में नहीं। मीडिया को मेडिकल कॉलेज का जे.आर. वन दिखाओ और ठीक से दिखाओ।"
"कौन दिखाएगा ?"
"सब मिलकर दिखाएँगे।" मैंने बात समेटी। "और एक आखिरी बात जो प्रोफ़ेसरों को ही लड़कों को सिखानी होगी वह मरीज़ों के बारे में है। यह सिक्के का दूसरा पहलू है। बावला मरीज़ उपभोक्तवाद की आँधी में कन्ज़्यूमर तो बन गया , मगर रोग का इलाज जींस की शॉपिंग नहीं है। रोगी और उसका परिवार नार्मल नहीं हैं , वे व्यथित हैं। इसलिए उनके आवेगों को नार्मल लोगों की बातचीत कतई नहीं समझा जाए। इतना मार्जिन डॉक्टरों को उन्हें देना होगा।"
"यह बात हम जानते हैं फिर भी गुस्सा आ जाता है। क्यों ?" सुशान्त पूछने लगा।
"क्योंकि तुम रोग के विज्ञान-पक्ष में इतने डूब जाते हो कि उसका भावना-पक्ष विस्मृत कर देते हो। सर्जरी सीखना अच्छी बात है , मगर मरीज़ ऑब्जेक्ट नहीं सब्जेक्ट है। यह बात तुम्हें भी भूलनी नहीं है। चलो , चलकर चाय पियें।"
-- डॉ. स्कन्द शुक्ल
सुशान्त सस्पेंड कर दिया गया था , डिपार्टमेंट से। न ओपीडी में दिखोगे तीन हफ़्तों तक , न वॉर्ड में और न ओटी में।जाओ। बैठो हॉस्टल में और घूमो चाय के अड्डों पर।
"जिन को बोतल में बन्द कर दिया गया है।" मैंने उससे कहा था।
"क्या बॉस , आप भी मज़े लेंगे ?" उसके स्वर में किलसन थी।
"डॉक्टर जिन नहीं हैं ? पब्लिक तो उनको वही समझती है ? भगवान तो अब आउटडेटेड संज्ञा हो गयी है , बेटा।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा।
"पब्लिक साली क्या समझे कि हमपर क्या बीतती है ? केबल पर 'संजीवनी' देखने वाले लोग हैं बॉस ये लोग , डॉक्टरों को मॉडल समझते हैं। इन्हें हमारा बिना दस्तानों के पट्टी करना नहीं दिखता ; कॉलेज गेट पर हमारा चाय पीना दिखता है।"
"तो समझाओ उन्हें ? मेरी समझ से डॉक्टरों की तरफ से भी कमी है यहाँ। हमें अपने प्रोफेशन की ग्लैमरस छवि पर खुश नहीं होना चाहिए , यह तो मीठा ज़हर है। इससे समाज हमारे प्रति ईर्ष्यालु होता है। जेलसी पैदा होती लोगों में।
कभी मीडिया का कैमरा हॉस्टलों की तरफ मुड़वाओ जहाँ लड़के-लड़कियाँ 'लव एंड बेली' खोलकर रतजगे करते हैं। वॉर्डों के चक्कर उन घंटों में लगवाओ जब मन्त्रीजी का दौरा न हो। कुछ ऐसा माहौल पैदा करो कि प्रोफेसरों के इंटरव्यू छपने से पहले , पसीना बहाने वाले लड़कों के इंटरव्यू छपें। उसमें भी हाउस को तरजीह मिले। मेडिकल कॉलेज में भी एक वर्ण-व्यवस्था चला करती है , प्रोफ़ेसरों की बैगथामू परम्परा। यह हाइरैरकी ख़त्म होनी चाहिए। यह सब मिलकर हमारे खिलाफ माहौल पैदा करता है , समाज में। फ़ौज में क्या केवल जवान गोली चलाते हैं और अफसर केवल ऑर्डर देते हैं ; नहीं न ! तो मेडिकल कॉलेज में क्यों ? "
"बॉस , हमारे पास पट्टियों और फाइलों से फ़ुर्सत है ? आपको तो पता है कि ... " सुशान्त बोलने लगा।
"यार , ज़िम्मेदारी सबकी है। मरीज़ सबके हैं , केवल प्रोफ़ेसरों के नहीं। मरीज़ के तीमारदार को यह जनवाना पडेगा कि सबसे महत्त्वपूर्ण डॉक्टर तुम हो और यह काम प्रोफ़ेसर साहब को करना पड़ेगा। 'बड़े डॉक्टर साहब' मरीज़ को तभी ठीक कर पाएँगे जब 'छोटे डॉक्टर साहब' वहाँ दिन-रात पसीना बहाएँगे। मरीज़ का परिवार यह तो जाने कि जो उसकी पट्टी तुम करने जा रहे हो , वह दोसौ एकवीं है , पहली नहीं। समस्या तो यह है कि तुम्हारा बोझा उसे दिखायी ही नहीं देता।"
" वे तो कह देंगे कि यह तो आपकी ड्यूटी है। आपको तो यह काम करना ही पड़ेगा।" सुशान्त ने कहा।
" ड्यूटी शब्द आजतक इसलिए अपना असर नहीं छोड़ पाया क्योंकि वह बोझ की तरह बोला जाता है। ड्यूटी करने के लिए इस तरह मत कहिए कि आप उसे अपना नौकर समझ रहे हों। 'नौकरी' में इससे अभिरुचि मर जाती है।यह चीज़ उनको धीरे-धीरे समझ में आ जायेगी। "
"मीडिया को यह सब कब दिखेगा बॉस ? प्रिंट में , इलेक्ट्रॉनिक में , फर्स्ट इयर रेजिडेंट क्यों नहीं दिखाया जाता , जब कि पूरा अस्पताल वही चलाता है।" सुशान्त ने ठण्डी साँस छोड़ी।
"दलितों और औरतों ने पूरी दुनिया चलायी है पर अभी से पहले तक उनके बारे में कोई बात करता था ? 'हाउस' मेडिकल समाज का दलित है। वह परदे के पीछे काम करता है। वह काम करे और सीखे , यह तो अच्छी बात है मगर मेडिकल प्रोफ़ेशन की छवि तभी सुधरेगी जब ज़्यादा बात उसके बारे में की जायेगी , हेड ऑफ़ डिपार्टमेंट के बारे में नहीं। मीडिया को मेडिकल कॉलेज का जे.आर. वन दिखाओ और ठीक से दिखाओ।"
"कौन दिखाएगा ?"
"सब मिलकर दिखाएँगे।" मैंने बात समेटी। "और एक आखिरी बात जो प्रोफ़ेसरों को ही लड़कों को सिखानी होगी वह मरीज़ों के बारे में है। यह सिक्के का दूसरा पहलू है। बावला मरीज़ उपभोक्तवाद की आँधी में कन्ज़्यूमर तो बन गया , मगर रोग का इलाज जींस की शॉपिंग नहीं है। रोगी और उसका परिवार नार्मल नहीं हैं , वे व्यथित हैं। इसलिए उनके आवेगों को नार्मल लोगों की बातचीत कतई नहीं समझा जाए। इतना मार्जिन डॉक्टरों को उन्हें देना होगा।"
"यह बात हम जानते हैं फिर भी गुस्सा आ जाता है। क्यों ?" सुशान्त पूछने लगा।
"क्योंकि तुम रोग के विज्ञान-पक्ष में इतने डूब जाते हो कि उसका भावना-पक्ष विस्मृत कर देते हो। सर्जरी सीखना अच्छी बात है , मगर मरीज़ ऑब्जेक्ट नहीं सब्जेक्ट है। यह बात तुम्हें भी भूलनी नहीं है। चलो , चलकर चाय पियें।"
-- डॉ. स्कन्द शुक्ल
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