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संयम - साधना का प्रथम सोपान






साधना का सूत्र है संयम 
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राम-रावण युद्ध से पूर्व विभीषण चिंतित होकर राम से पूछते हैं कि,
हे राम ! न तो आपके पास रथ है और न तन की रक्षा के लिए कवच और न जूते ही, तब रथ पर सवार बलवान रावण को कैसे जीता जाएगा ? श्री राम जी कहते हैं कि जिससे विजय होती है वह दूसरा ही रथ होता है। उस रथ की व्याख्या करते हुए प्रभु श्री रामचन्द्र जी कहते हैं -
अमल अचल मन त्रोन समाना।
सम जम नियम सिलीमुख नाना॥
... अर्थात् संसार रूपी युद्ध को जीतने के लिए निर्मल और स्थिर मन तरकश के समान है। शम अर्थात् मन का वश में होना तथा यम और नियम ये बहुत से बाण हैं। इनके समान विजय का दूसरा उपाय नहीं है। मन पर नियंत्रण का अर्थ भावों का दमन नहीं, अपितु उनका परिष्कार करना है। उदात्त मूल्यों से युक्त सकारात्मक भावों द्वारा ही सतही या अनुपयोगी व घातक भावों से मुक्ति संभव है। इसके लिए सकारात्मक भावों को दृढ़ से दृढ़तर करते जाना अनिवार्य है। यही वास्तविक विजय है, यही साधना है। हमारे व्यवहार के मूल में हमारे विचार ही होते हैं और विचारों का उद्गम होता है हमारा मन। वास्तव में मन की साधना ही वास्तविक साधना है। जब हम संयम की बात करते हैं तो मन के संयम की ही बात होती है। मन का दमन नहीं होता, दमन इंद्रियों का होता है क्योंकि मन इंद्रियों का स्वामी है। अत: मन के संयम द्वारा इंद्रियों को वश में करना सरल है। यदि मन वश में नहीं है तो इंद्रियों को नियंत्रित करना असंभव है। मन की साधना के बिना इंद्रियों को रोकना ही दमन कहलाता है। दमन पीड़ाकारक होता है जबकि संयम से दु:ख की अनुभूति नहीं होती है। अत: संयम ही श्रेयस्कर है। जीवन में संयम का प्रादुर्भाव कैसे हो, इसी का उत्तर है साधना। साधना भी सरल नहीं है, लेकिन उपाय स्थायी है। साधना को तप भी कहते हैं। जिस प्रकार लोहे या अन्य धातुओं को अपेक्षित तापमान पर गरम करके पिघला लिया जाता है और फिर उसे अपेक्षित सांचे में ढालकर मनचाहा आकार दे दिया जाता है, उसी प्रकार साधना में इच्छाओं को मनचाहा आकार दे दिया जाता है। इच्छाओं का त्याग अथवा सात्विक इच्छाओं की उत्पत्ति साधना द्वारा ही संभव है। इससे मन और इंद्रियों में द्वंद्व समाप्त हो जाता है। द्वंद्व की समाप्ति ही वास्तविक उपचार है।
 यही संयम है,
 यही साधना है।

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